Sunday, August 30, 2009

उत्तम संयम

स्तुत शृंखला मुनिवर क्षमासागरजी महाराज के दश धर्म पर दिए गए प्रवचनों का सारांश रूप है. पूर्ण प्रवचन "गुरुवाणी" शीर्षक से प्रेषित पुस्तक में उपलब्ध हैं. हमें आशा है की इस छोटे से प्रयास से आप लाभ उठा रहे होंगे और इसे पसंद भी कर रहे होंगे.

इसी शृंखला में आज "उत्तम संयम" धर्म पर यह झलकी प्रस्तुत कर रहे हैं.



संयम धर्म - मुनिवर क्षमासागरजी महाराज
१. अपने मन वचन और इन्द्रियों को संयमित कर लेना, नियमित कर लेना, नियंत्रित कर लेना इसी का नाम संयम है.
२. संयम के मायने केवल अनुशासन हीं नहीं है, आत्मअनुशासन है.


संयम जीवन को अनुशासित और संकल्पित करने का अवसर है. हमने जीवन में सच्चाई लाने का मन बनाया है, इसके लिए जरुरी है की हम अपने जीवन को विभिन्न संकल्पों द्वारा संयमित करे जैसे कांच की एक चिमनी दीपक की लौ को जलाये रखती है उसे बुझने नहीं देती, ठीक ऐसे ही यदि हमने अपने जीवन में सत्य-ज्योति हासिल कर ली है तो हमारा कर्त्तव्य है की हम उस पर संयम की एक चिमनी रख दें जिससे सच्चाई की ज्योति कभी बुझ न पाये. संयम एक बंधन होते हुए भी जीवन को ऊंचा उठाने में मदद करता है, जैसे एक कुशल माली किसी लता में हल्का सा बंधन डाल देता है जो उसके विकास में सहायक सिद्ध होता है.

नदी के किनारे मजबूत न हो तो वह नदी यहाँ वहां फैलकर नष्ट हो जायेगी. ऐसे ही संयम/ अनुशासन हमारा जीवन ऊंचा उठाता है. हम सामान्य जीवन में भय से, स्वार्थवश कभी स्वास्थ्य रक्षा के लिए बहुत-से अनुशासन अंगीकार कर लेते है पर ये अनुशासन जीवन को ऊंचा नहीं बना पाते इसलिए संयम के मायने केवल अनुशासन ही नहीं आत्मानुशासन है, आत्मनियंत्रण है.

यदि द्दृष्टि आत्मउत्थान की है तो अपने ऊपर लगाये सारे अंकुश हमें ऊंचा उठा देंगे. व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर अंकुश लगा ले, अपने को अनुशासित कर ले तो वह अनुशासन अपने को ऊंचा उठाने में मदद करता है.

संयम के मायने है - अपनी संकल्प शक्ति को अपने विल-पॉवर को भी बढ़ाना है. आज नयी पीढ़ी की शिकायत है की हममें आत्मविश्वास एवं संकल्प शक्ति की कमी है. कमी क्यों नहीं होगी? हमने अपने जीवन को संयमित करने का प्रयत्न ही नहीं किया है. यदि हम अपने जीवन को संयमित करे तो मालूम होगा अपनी संकल्प शक्ति का. जिसकी संकल्पः शक्ति जितनी अधिक होगी वह अपने जीवन को उतना अधिक संयमित कर सकता है. जीवनभर के लिए कोई नियम लेने के लिए बहुत साहस चाहिए. यह बंधन दूसरों के द्वारा नहीं बांधा जा सकता बल्कि स्वयं का साहस होना जरुरी है. यह साहस यदि हम जुटा लेते है तो ऐसे संकल्पों से ऐसे नियंत्रणों से हमारा जीवन धीरे-२ ऊंचा उठता है और हमारा आत्मविश्वास बढता चला जाता है.

संयम से हमारे संस्कारो का परिमार्जन होता है हमारे भीतर असंयम के, असावधानी के, अव्यवस्थित जीवन जीने के जो संस्कार पढ़े हुए है वे सब व्यवस्थित और परिमार्जित हो जाये यह संयम का काम है. एक बार भर्तहरी मुनि विरक्त होकर जंगल में साधना कर रहे थे अचानक एक हीरा देख कर उनका मन एक क्षण को डोल गया लेकिन अगले ही क्षण दो घुड़सवार वहां आये और हीरे पर अपने अधिकार के लिए लड़ने लगे और दो मिनिट में ही दोनों के सिर जमीन पर पड़े हुए थे और हीरा भी. भर्तहरी फिर से ध्यान में लीन हो गए और सोचने लगे यदि में भी चूक गया होता तो मेरी भी यही दशा होनेवाली थी. संस्कारो की ऐसी प्रबलता को हम संयम से आसानी से छोड़ सकते है.

संयम एक तरह का स्वस्थ और संतुलित जीवन है - क्या खाना - कैसे खाना- कब खाना - क्या सोचना - क्या करना - क्या नहीं करना आदि है. आचार्य भगवन्तो ने संयम की परिभाषा बनायीं है कि इदं कर्तव्यम - इदं न कर्तव्यम, इदं आचरणीयम्, इदं न आचरणीयम्, इति प्रतिज्ञाय और दूसरी परिभाषा बनाते है कि व्रत और समिति का पालन करना अपने मन, वचन और इन्द्रियों को संयमित कर लेना- नियमित कर लेना- नियंत्रित कर लेना इसी का नाम संयम धर्म है.

स्वस्थ और संतुलित जीवन जीने के लिए यह चार बातें हमेशा करे- कब ? -कैसे ? - क्यों ? और क्या ? कब खाएं, २४ घंटे खाते रहे क्या ? क्या जहाँ चाहें - चलते - फिरते - आते
- जाते खाना ? नहीं, शांति से बैठकर भगवान का स्मरण करके कोई चीज खाना, कोई चीज करना . हम दुनिया भर कि चीजों के बारे में ये प्रश्न करते हैं ? पर अपने चीजों के बारे में यह प्रश्न क्यों नहीं करते . अतः जो अपने मन और इन्द्रियों को मलिन करे वह नहीं करना यदि हम इतना विचार कर लेवें तो हमारा जीवन आसानी से संतुलित हो जायेगा .
इन्द्रियों और मन का सदुपयोग करना और उन्हें ठीक दिशा देना भी संयम है .इन्द्रियों घोड़ा के सामान है और घोड़ा तेज तर्रार होना चाहिये . ऐसे ही मन को मर लेने से , इन्द्रियों को नष्ट कर लेने से हमारे जीवन का उद्धार नहीं होगा बल्कि मन को ठीक दिशा देने एवं इन्द्रियों की लगाम अपने हाथ में रख लेने से ही हमारा जीवन ऊंचा होगा मतलब मन से अच्छे विचार करना , आँखों से अच्छा देखना , और वाणी से हित मित प्रिये कहना इत्यादि,
इन्द्रियों का सदुपयोग करना है . इन्द्रियों का सदुपयोग करना ही उन्हें नियंत्रित कर लेना है . कोई कठिन चीज़ नहीं है . यदि हमारे जीवन में थोड़ा सा अभ्यास और विरक्ति आ जाये तो हम अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकते है और सदुपयोग कर सकते है.जिसके मन में दृष्टि कि निर्मलता है , जिसको सम्यकदृष्टि प्राप्त हो गयी है उसके जीवन में ज्ञान
और वैराग्य दोनों ही आ जाते है ,हमें भी ज्ञान और वैराग्य द्वारा अपने जीवन को नियंत्रित करने का प्रयास करना चाहिए .

यदि हम एक बार तय कर लेवें कि अपने मन को अपनी इन्द्रियों को, अपनी वाणी
को , अपने जीवन को एक दिशा देनी है, नियंत्रित करना है ,अनुशासित करना है तो हमारा जीवन जरूर से संयमित होगा, बोलिए मुनि क्षमासागर महाराज की जय .

-Maitree Samooh

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