Tuesday, August 25, 2009

उत्तम मार्दव

"उत्तम मार्दव" - पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी


हम सभी अपने जीवन को अच्छा बनाने का निरंतर प्रयत्न करते हैं. कुछ चीज़ें हमारे अज्ञान की वजह से हमारे जीवन में इतना घुल-मिल जाती हैं. जैसे की क्रोध - जो न हम अपने जीवन में चाहते हैं, न ही दुसरे को ऐसा देखना चाहते हैं. बस ऐसे ही चीज़ों का आभाव कैसे कर सकते हैं, यही हमें सीखना है पर्युषण पर्व में.
जब दूसरे का तिरस्कार करने का भाव, दुसरे के गुणों को सहन न करने का भाव, या दूसरों से इर्ष्या करने का भाव आये - तो समझना यही अंहकार है. और ऐसे ही अंहकार के अभाव का दिन है उत्तम-मार्दव. हमारे अन्दर दूसरो के गुणों को देखके हे ईर्ष्या के भाव आना ही अहेंकार को जनम देता है .अक्सर ऐसा लगता है की मान श्रेष्ठता की भावना से आता है , पैर ऐसा नहीं है. मान को हीन भावना की वजह डेवेलोप हुआ एगो ही जनम देता है.हम अपनी योग्यता को जान केर उसका सम्मान करेंगे ,तोह बहार से सम्मान पाने की या दूसरे का तिरस्कार करने की भावना ही नहीं होगी.

यह हमपे निर्भर करता है की हम किस प्रकार का जीवन जीना चाहते है. हमारे पास दो रास्ते हैं- पहला यह की हम समुद्र में पड़ी की एक बूँद की तरह समुद्र में एकमेक होकर रहे या फिर दूसरा यह की हम समुद्र में द्वीप की तरह अपनी सत्ता कायम रखने के लिए सबसे अलग - थलग अकेले खड़े रहे. हमारे साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है की हमें इसकी चिंता नहीं है की कोई हमारा सम्मान करे या न करे,पर इसकी ज़रूर है की हमारे सामने दुसरे का सम्मान न हो जाये.
"दुसरे का हो रहा सम्मान , हमें लगता है जैसे हो रहा हमारा अपमान "
और इसी को तो अहेंकार कहते हैं .लेकिन हमारे गुण तभी बढेंगे जब हम दुसरे के गुणों की प्रशंशा में शामिल हो सकेंगे जब दुसरे के गुण सुनके, उसकी प्रशंशा सुनके हमें हर्ष हो, तब समझना की हमारे अंदर मार्दव धर्म की शुरुवात हुई है.
मेरेपन का भाव भी अंहकार को जनम देता है. 'मैं हूँ' यह कहने मैं दिक्कत नहीं है, पर 'मैं कुछ हूँ' यह भाव अपने साथ अनेक व्याधियां लेके आता है. जब 'मैं कुछ हूँ' तो मेरे पास ये होना चाहिए, वोह होना चाहिए और इसी तरह हम संसार के प्रपंचों में पड़ते जाते हैं. हमारे पास चीज़ें होने और उन चीज़ों का उपयोग करना बुरी बात नहीं है, लेकिन उन चीज़ों के माध्यम से अपने आप को बड़ा मानना, बड़ा दर्शाना ही हमारी कमजोरी है. जब भी हम कुछ हासिल करें तो अपने जीवन में उसका आनंद लें, इसमें आनंद न मानें की वह दुसरे लोग देखें. आचार्य भगवंतों ने कहा है- क्रोध कषाय हो तोह नरक गति मिलती है, मान कषाय के साथ मनुष्य पैदा होता है, मायाचारी को तिर्यंच गति मिलती है, और लोभी को देव पर्याय प्राप्त होती है.
सम्मान तो 'गुणवत्ता' और 'श्रेष्ठता' का होता है. इसीलिए यदि हम अपनी योग्यता और श्रेष्ठता बढाएं तोह हम साधारण होके भी उस असाधारणता को प्राप्त कर सकते हैं.
जो जितना साधारण है, वो उतना ही असाधारण है और जो जितना असाधारण बनने की कोशिश करता है, वोह उतना ही साधारण होता है. अगर हम अहेंकार के स्थान पे गौरव करने लगें तोह हमारा जीवन और सरल हो जायेगा. जैसे हम उस काल में पैदा हुए जो तीर्थंकर का है, हमें जिनवाणी का समागम मिला,में तोह ज्ञान-स्वभावी जीव तत्त्व हूँ, मुझे रत्नत्रय धर्म की आराधना करने मिल रही है इत्यादि. अपने अंदर विनय लाने के लिए हम तीन उपाय कर सकते हैं-
पहला यह की दूसरों की प्रशंसा करें, दूसरा यह की भगवान् के गुणगान करें,
और तीसरा यह की हमपे जिनके उपकार हैं, उन्हें हम याद करें और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें.
एक बार राजा साहब की सवारी जा रही थी, रस्ते में राजा को एक पत्थर आके लगा, सिपाही यहाँ-वहाँ देखने लगे और सबने देखा की एक छोटा सा बालक हाथ में कुछ पत्थर लिए खडा हुआ है. सब अचंभित हो गए. वोह बालक और उसके पास में खड़ी हुयी उसकी माँ दोनों डर गए. गलती करने पर भी माँ-बेटे दोनों विनय के साथ खड़े रहे. सैनिक लड़के को राजा के पास ले आये.
राजा ने पूछा - बेटे, तुमने पत्थर फेका था?
बच्चे ने कहा - 'हाँ, मैंने ही फेका था'
राजा ने फिर पुछा - 'क्या मुझे मारने के लिए फेंका था ?'
बच्चा बोला - 'नहीं आपको मारने के लिए नहीं, मैंने तो इस पेड़ में लगे हुए आम को तोड़ने के लिए फेंका था'.
राजा बहुत खुश हुआ उसकी सच्चाई और विनय से और उसको इनाम दिया.
ऐसे ही कोई हमें चोट पहुंचाए, और हम सहज परिणाम रखें तोह हम सबको जीवन का अलग ही आनंद आएगा. ऐसे ही हम अपने जीवन को अच्छा बना पाएंगे.

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