Tuesday, September 14, 2010
Uttam Sauch(Hindi)
जय जिनेन्द्र!
प्रस्तुत शृंखला मुनिवर क्षमासागरजी महाराज के दश धर्म पर दिए गए प्रवचनों का सारांश रूप है. पूर्ण प्रवचन "गुरुवाणी" शीर्षक से प्रेषित पुस्तक में उपलब्ध हैं. हमें आशा है की इस छोटे से प्रयास से आप लाभ उठा रहे होंगे और इसे पसंद भी कर रहे होंगे.
इसी शृंखला में आज "उत्तम शौच" धर्म पर यह झलकी प्रस्तुत कर रहे हैं.
"उत्तम शौच"
हम आनंद लें उस चीज़ में जो हमें प्राप्त है| यह ना देखें की दूसरे के पास क्या है, जो हमारे पास है,उस में खुश रहे अन्यथा मुश्किलें पैदा होती हैं |अपनी ऐसी ही मुश्किलों को आसान करने के लिए हमारे मन में सरलता होना चाहिए, ईमानदारी होना चाहिए,हमारे भीतर उन्मुक्त ह्रादयता होनी चाहिए. और इतना ही नहीं हम स्पष्टवादी होवें, बहुत सीधा-सादा जीवन जीने का प्रयास करें, जितना बन सकें भोलापन लावें| बच्चों में भी होता है भोलापन, पर वह अज्ञानतापूर्वक होता है | लेकिन ज्ञान हासिल करने के बाद का भोलापन ज्यादा काम का होता है | निशंक होकर , बहुत सहज होकर, भोलेपन से जियें तो हमारा जीवन बहुत ऊँचा और बहुत अच्चा बन सकता है | जो
मलिनताएँ हमारे भीतर हैं उन्हें कैसे हटायें और कैसे हम अपने जीवन को, अपनी वाणी को, अपने मन को, अपने कर्म को पवित्र बनाएं |
जो आतंरिक सुचिता या आतंरिक निर्मलता का भाव है वही शौच धर्म है |लोभ के अभाव में शुचिता आती है |हम लोभ के प्रकार देखते हैं -
पहला है वित्तेषणा -> यह है धन- पैसे का लोभ | धन कितना ही बढ़ जाए कम ही मालुम होता है| धन का लोभ कभी रुकता नहीं है, बढ़ता ही चला जाता है |
दूसरा है पुत्रेषणा-लोकेषणा -> यह है अपने पुत्र और परिवार का लोभ |
तीसरा है समाज में अपनी प्रतिष्ठा का लोभ | यह तीन ही प्रकार के लोभ होते हैं , इन तीनों का लोभ हमें मलिन करता है | बस इन तीनों पे नियंत्रण पाना ही हमारे जीवन को बहुत निर्मल बना सकता है | लोभ की तासीर यही है की आशाएं बढ़ती हैं, आश्वासन मिलते हैं और हाथ कुछ भी नहीं आता | जो अपने पास है वह दिखने लगे तो सारा लोभ नियंत्रित हो जायेगा | व्यक्तिगत असंतोष, पारिवारिक असंतोष, सामाजिक असंतोष - कितने तरह के असंतोष हमें घेर लेते हैं | अगर हम समझ लें दूसरे के पास जो है वह उस में खुश है , और जो अपने पास है उस में हम आनंद लें तोह जीवन का अर्थ मिल जायेगा |
जीवन में निर्मलता के मायने हैं - जीवन का चमकीला होना | निर्मलता के मायने हैं – मन का भीगा होना | निर्मलता के मायने हैं- जीवन का शुद्ध होना | निर्मलता के मायने हैं -जीवन का सारगर्भित होना | निर्मलता के मायने हैं - जीवन का निखालिस होना | इतने सारे मायने हैं पवित्रता के, निर्मलता के | जब मुझे मलिनतायें घेरें तो उनपे मियंत्रण रखना ज़रूरी है | हमारा मन जितना भीग जाता है उतना ही निर्मल हो जाता है |
अगर किसी की आँख भर जाए तो वह कमज़ोर माना जाता है | आज कोई रोने लगे तो बिलकुल बुद्धू माना जाए|
आज अगर मन भीग जाए तो हम आउट ऑफ़ डेट माने जायें | बहुत कठोर हो गए हैं हम , हमारी निर्मलता हमारे कठोर मन से गायब हो गयी | जबकि हमारा मन इतना निर्मल होना चाहिए था की दूसरो के दुःख को , संसार के दुखों को देखकर द्रवित हो जाएँ उसमें डूब जाएँ |इसी तरह हमें जो प्राप्त है हम उसमें संतुष्ट होंगे और जो हमें प्राप्त नहीं है उसे पाने का शांतिपूर्वक सद्प्रयास करेंगे तोह हम जीवन में सदेव आगे बढ़ते जायेंगे |
गुरुवर क्षमासागरजी महाराज की जय!
मैत्री समूह रेशु जैन का इस प्रवचन सारांश को बनाने में दिए गए योगदान के लिए सहृदय धन्यवाद करता है.
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आपके ब्लॉग की स्वागत चर्चा यहां की गयी है
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