Friday, September 10, 2010

Munishri's Pravachan on Deeksha Diwas

आज चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसगार जी महाराज की पुण्यतिथि
पर हम उनके गुणों का चिंतन, स्मरण और उनको गुणों को अपने जीवन में लाने
पर विचार करते है. सन १९७२ में भोजपुर के पास एर्कुल ग्राम में
शान्तिसगार जी महाराज का जन्म हुआ. सन १९१३ में मुत्तुर ग्राम में
उन्होंने क्षुल्लक दीक्षा ली. गिरनार यात्रा के दौरान उन्होंने एलक
दीक्षा प्राप्त की और सन १९२० में देवाप्पा स्वामी - देवेंकिर्ती महाराज
से मुनिदिक्षा प्राप्त की. सन १९२४ में सम्डोली में उन्हें आचार्य पद
प्राप्त हुआ. सन १९३७ में उनके आचरण की श्रेष्ठता को देखते हुए उनको
चारित्रचक्रवर्ती पद प्रदान किया गया.


आचार्य श्री महान तपस्वी थे ८४ वर्ष के जीवनकाल में ५७ वर्ष उन्होंने
अन्न का सेवन नहीं किया ३६ वर्ष के मुनिअवस्था काल में २५ वर्ष माह
लगभग १०,००० उपवास किये. इस युग में उनकी यह तपस्या हमें प्रेरणा देती है
की हम अपने समयार्थ को कम ही मानकर इन चीजो में रूचि नहीं लेते है हमें
इस तरह की तपस्या और साधना में रूचि लेना चाहिए और यदि हम नहीं कर
पाते है तो जो कर रहे है उनके प्रति श्रद्धा और सदभावना बनायीं रखना
चाहिए.
आचार्य श्री के जीवन के बहुत उदाहरण है जिनसे हमें प्रेरणा
मिलती है. सिंह, सर्प और चींटी द्वारा उनके ऊपर उपसर्ग हुआ लेकिन वे
अपनी सदना में अडिग रहे. चिंटियों ने उनके सारे शारीर को लहुलोहान कर
दिया तब भी वे स्थिरता से आत्मा के ध्यान में लीन रहे सर्प घंटो उनके
शारीर पर लिपटा रहा इसके बाद भी वे ध्यान में लीन रहे. सिंह उनके
सामने आकर बैठा रहा पर वह निडरता पूर्वक आत्मध्यान में लीन रहे एक तरफ
उनके मन में समता है और सारे प्राणी मात्र के प्रति वात्सल्य भी है
प्रेम ही एक मात्र ऐसी चीज है जिससे हम बड़े-से-बड़े, क्रूर-से-क्रूर
मनुष्य या पशु को शांति का पाठ सिखा सकते है अपने परिणामो में समता
उन्होंने रखी और जो उनके संपर्क में आया उसके प्रति उन्होंने अपनी
मैत्री, वात्सल्य प्रकट किया जिससे सारे जीव उनके पास आकर शांति का अनुभव
करते थे
एक ग्राम में किसी व्यक्ति के सिर में पीड़ा थी उसका बहुत उपचार किया
गया किन्तु दर्द कम नहीं हुआ आचार्य श्री ने उसे पिछी से आशीर्वाद दिया
और उस व्यक्ति को वह पीड़ा कभी नहीं हुई यह कोई जादू नहीं है यह उनकी
तपस्या से भावनाओ की निर्मलता का प्रतीक है एक तलक चंद देवचंद गाँधी के
घर में १० वर्ष के बालक को सर्प ने काट लिया बालक को महाराज के चरणों में
रख दिया महाराज ने इतना ही कहा -'ठीक हो जायेगा' और वह बालक निर्विश
होकर अपना सारा कार्य करने लगा.


नस्लापुर में एक कुष्ट रोगी था मुनिजनो की निंदा करने से ही कुष्ठ
रोग होता है आचार्य श्री ने उस रोगी से कहा -' माह तक महाव्रतो के जैसा
आचरण करलो, और अगर यदि ब्रह्मचर्य का आचरण करलो तो मेरा आशीर्वाद है की
इस रोग से ठीक हो जाओगे.' उस व्यक्ति ने आचार्य श्री के चरणों में अपनी
श्रद्धा व्यक्त की और माह तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और उसका
रोगमुक्त हो गया उसके कर्मो की निर्जरा हो गयी और परिणामो की निर्मलता
से एवं आचार्य श्री महाराज की अपनी तपस्या के प्रभाव से इस तरह का
दिशा-बोध हुआ.


आचार्य श्री १२ बजे सामायिक में बैठने वाले थे मंदिरजी से सारे
लोग जा चुके थे तभी उन्होंने देखा की ऊपर से चिड़िया के घोसले में से एक
चिडिया का बच्चा धोके से गिर गया उनके मन में आया की अगर में
सामायिक में लीन हो गया और इतनी देर में यदि कोई बिल्ली आई तो इसे खा
लेगी इसलिए वे सामायिक में नहीं बैठे आधे घंटे बाद मंदिर में कोई आया
तो उसे इशारा करदिया की इसे संभल लो.
और फिर :३० घंटे तक सामायिक में ऐसे लीन रहे की सर्प आकर उनसे लिपटा
रहा और फिर भी वे नहीं हिले अपनी तपस्या में अत्यंत कठोर और दुसरो की
रक्षा के लिए अत्यंत वात्सल्य एवं दयालु यह दोनों चीजे उनके आचरण में
एक ही दिन घटित होती हुई दिखी.

Many thanks to Nikunj for documenting this.


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