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जय जिनेन्द्र!
पर्युषण पर्व के पावन अवसर पर हम १०८ मुनिवर क्षमासागरजी महाराज के दश धर्म पर दिए गए प्रवचनों का सारांश रूप प्रस्तुत कर रहे है. पूर्ण प्रवचन "गुरुवाणी" शीर्षक से प्रेषित पुस्तक में उपलब्ध हैं. हमें आशा है की इस छोटे से प्रयास से आप लाभ उठाएंगे और इसे पसंद भी करेंगे.
इसी शृंखला में आज "उत्तम क्षमा" धर्म पर यह झलकी प्रस्तुत कर रहे हैं.
पर्यूषण का उद्देश्य
पर्यूषण के दस दिन हमारी वास्तविक अवस्था की और अग्रसर होने के प्रयोग के दिन हैं. हमने अपने जीवन में जिन चीजो को श्रेष्ठ माना है इन विशिष्ठ दिनों में प्रकट करने की कोशिश भी करनी चाहिए ये दस दिन हमारे प्रयोग के दिन बन जायें, यदि इन दस दिनों में हम अपने जीवन को इस तरह की गति दे सके की जो शेष जीवन के दिन है वे भी ऐसे ही हो जाये ; इस रूप के हो जाये. वे भी इतने ही अच्छे हो जाये जितने अच्छे हम ये दस दिन बिताएंगे.
हम लोग इन दस दिनों को बहुत परंपरागत ढंग से व्यतीत करने के आदि हो गये है. हमें इस बारे में थोडा विचार करना चाहिए. जिस तरह परीक्षा सामने आने पर विधार्थी उसकी तैयारी करने लगते है, जब घर में किसी की शादी रहती है तो हम उसकी तैयारि करते है वैसे ही जब जीवन को अच्छा बनाने का कोई पर्व, कोई त्यौहार या कोई अवसर हमारे जीवन में आये, तो हमें उसकी तैयारी करना चाहिए. हम तैयारि तो करते है लेकिन बाहरी मन से, बाहरी तयारी ये है की हमने पूजन कर ली, हम आज एकासना कर लेंगे, अगर सामर्थ होगा तो कोई रस छोड़ देंगे, सब्जियां छोड़ देंगे, अगर और सामर्थ होगा तो उपवास कर लेंगे. ये जितनी भी तैयारियां है यह बाहरी तैयारियां है, ये जरूरी है लेकिन ये तैयारियां हम कई बार कर चुके है; हमारे जीवन में कई अवसर आये है ऐसे दस लक्षण धर्म मनाने के. लेकिन ये सब करने के बाद भी हमारी लाइफ-स्टाइल में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो बतायेइगा की इन दस दिनों को हमने जिस तरह से अच्छा मानकर व्यतीत किया है उनका हमारे ऊपर क्या असर पड़ा?
यह प्रश्न हमें किसी दुसरे से नहीं पूछना, अपने आप से पूछना है. यह प्रश्न हम सबके अन्दर उठना चाहिए. इसका समाधान, उत्तर नहीं, उत्तर तो तर्क (logic) से दिए जाते है, समाधान भावनाओ से प्राप्त होते है. अत: इसका उत्तर नहीं समाधान खोजना चाहिए. इसका समाधान क्या होगा? क्या हमारी ऐसी कोई तयारी है जिससे की जब क्रोध का अवसर आयेगा तब हम क्षमाभाव धारण करेंगे; जब कोई अपमान का अवसर आएगा तब भी हम विनय से विचलित नहीं होंगे; जब भी कोई कठिनाई होगी तब भी, उसके बाबजूद भी हमारी सरलता बनी रहेगी; जब मलिनताएँ हमें घेरेंगी तब भी हम पवित्रता को कम नहीं करेंगे; जब तमाम लोग झूठ के रस्ते पर जा रहे होंगे तब भी हम सच्चाई को नहीं छोड़ेंगे ; जब भी हमारे भीतर पाप-कर्मो का मन होगा तब भी हम अपने जीवन में अनुशासन व संयम को बरक़रार रखेगे; जब हमें इच्छाएं घेरेंगी तो हम इच्छाओ को जीत लेंगे ; जब साड़ी दुनिया जोड़ने की दौड़ में, होड़ की दौड़ में शामिल है तब क्या हम छोड़ने की दौड़ लगा पाएंगे; जबकि हम अभी दुनियाभर की कृत्रिम चीजो को अपना मानते है? क्या एक दिन ऐसा आएगा की हम अपने को भी सबका मानेंगे? जब हम इतने उदार हो सकेंगे की किसी के प्रति भी हमारे मन में दुर्व्यवहार व इर्ष्या नहीं होगी !!
क्या इस तरह की कोई तैयारी एक बार भी हम इन दस दिनों में कर लेंगे; एक बार हम अपने जीवनचक्र को गति दे देंगे तो वर्ष के शेष तीन सो पचपन दिन और हमारा आगे का जीवन भी सार्थक बन जायेगा. प्राप्त परंपरा में दस प्रकार से धर्म के स्वरुप बताये गए है. उनको हम धारण करें इसके लिए जरुरी है की पहले हम अपनी कषायों को धीरे-धीरे कम करते जायें.
वास्तव में इन दस दिनों में अपनी भीतर कही बहार से धर्म लाने की प्रक्रिया नहीं करनी चाहिए बल्कि हमारे भीतर जो विकृतियाँ है उनको हटाना चाहिए. जैसे-जैसे हम उनको हटाते जायेंगे धर्म आपो-आप हमारे भीतर प्रकट होता जायेगा...
क्षमा धर्म
क्षमा - स्वभाव है. हमारा स्वभाव है- क्षमाभाव धारण करना इस स्वभाव को विकृत करने वाली चीजे कौन-सी है - इस पर थोडा विचार करना चाहिए. क्रोध न आवे वास्तव में तो क्षमा ये ही है. क्रोध आ जाने के बाद कितनी जल्दी उसे ख़त्म कर देता है, यह उसकी अपनी क्षमता है. 'क्षम' धातु से 'क्षमा' शब्द बना है- जिसके मायेने है- सामर्थ, क्षमता - सामर्थवान व्यक्ति को प्राप्त होता है. यह क्षमा का गुण. जो जितना सामर्थवान होगा वह उतना क्षमावान भी होगा, जो जितना क्रोध करेगा मानियेगा वह उतना ही कमजोर होगा. जो जितना आतंक करके रखता है वह उतना ही सशक्त और बलवान है लेकिन, जो जितना प्रेमपूर्वक अपने जीवन को जीता है मानियेगा वह उतना ही अधिक सामर्थवान है.
हमारा ये जो सामर्थ है, वह हमारी कैसे कमजोरी में तब्दील हो गयी? हम इसपर विजय कैसे प्राप्त करें? क्रोध का कारण- अपेक्षाओं की पूर्ति न होना. हम किन स्थितियों में क्रोध करते है? एक ही स्थिति है जब हमार अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं होती. अपेक्षाओं के पूरी न होने पर हमारे भीतर कषाय बढ जाती है और धीरे-धीरे हमारे जीवन को नष्ट कर देती है. क्रोध का एक ही कारन है- अपेक्षा. हमें यह देखना चाहिए की हम अपने जीवन में कितनी अपेक्षाएं रखते है? हर आदमी दुसरे से अपेक्षा रखता है अपने प्रति अच्छे व्यव्हार की और जब वह अपेक्षा पूरी नहीं होती तब वह स्वयं अपने जीवन को तहस-नहस कर लेता है. हम लोग क्षमा भी धारण करते है लेकिन हमारी क्षमा का ढंग बहुत अलग होता है. रास्ते से चले जा रहे है, किसी का धक्का लग जाता है, तो मुड़कर देखते है- कौन साहब है वे? अगर अपने से कमजोर है- तो वहां अपनी ताकत दिखाते है- क्यूँ रे, देखकर नहीं चलता! यदि वह ज्यादा ही कमजोर है तो शारीर की ताकत दिखा देते है. लेकिन अगर वह बहुत बलवान है तो अपना क्षमाभाव धारण कर लेते है. धक्का मरने वाला अगर बलवान है, तो बोलते है- कोई बात नहीं भाई साहब होता है ऐसा... एकदम क्षमा धारण कर लेते है. यह मजबूरी में की गयी क्षमा है. प्राय: ग्राहक दुकानदार से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं देखने के बाद कभी खरीदते है और कभी नहीं खरीदते है परन्तु दुकानदार कभी क्रोध प्रदर्शित नही करता. क्यूंकि दुकानदर अगर क्रोध करेगा तो दुकानदारी नष्ट हो जाएगी इस तरह हम क्षमाभाव स्वार्थवश भी धारण करते है. कई बार हम अपने मान-सम्मान के लिए भी चार लोगो के सामने क्षमाभाव धारण कर लेते है लेकिन यह सत्यता का प्रतीक नहीं है.
हम अब इसपर विचार करते है की क्रोध को कैसे जीत सकते है? सभी लोग कहते है की क्रोध नहीं करना चाहिए. लेकिन जैन दर्शन यह कहता है की अगर क्रोध आ जायें तो हमें क्या करना चाहिए. तो हम अब समाधान की चर्चा करते है:
१. सकारात्मक सोच को अपनाना और नकारात्मक सोच को छोड़ना
हमारे जीवन में जब भी कोई घटना होती है तो उसके दो पक्ष होते है - सकारात्मक और नकारात्मक. लेकिन हमें नकारात्मक पक्ष अधिक प्रबल दिखाई देता है. जिससे हमें क्रोध आता है अत: हमें प्रत्यक घटना के सकारात्मक पक्ष की और देखना चाहिए.
२. क्रोध में ईंधन न डालें
क्रोध को कम करने के लिए दुसरे नंबर का उपाय है- वातावरण को हल्का बनाना. हमे हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए की जब भी क्रोध आएगा मे उसमें इंधन नहीं डालूँगा, दूसरा कोई इंधन डालेगा तो मे वहां से हट जाऊंगा. क्रोध एक तरह की अग्नि है, उर्जा है, वह दुसरे के द्वारा भी विस्तारित हो सकती है और मेरे द्वारा भी विस्तारित हो सकती है, ऐसी स्थिति में वातावरण को हल्का बनाना है. कनैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' के पिता के घर पर बैठे थे. प्रातः काल एक व्यक्ति आकर उनको गलियां देने लगा. वे उसके सामने मुस्कुराने लगे. फिर थोड़ी देर बाद बोले- 'यदि तुम्हारी बात पूरी हो गयी हो तो जरा हमारी बात सुनो! थोड़ी दूर चलते है' वहां अखाडा है, वहां तुम्हे तुम्हारे जोड़ीदार से मिला दूंगा क्यूंकि मैं तो हूँ कमज़ोर. व्यक्ति का गुस्सा शांत हो गया और उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी. फिर बोले चलो चाय पीते है. इस तरह सामनेवाले ने इंधन तो डाला, पर आप निरंतर सावधान थे पानी डालने के लिए. ऐसी तैयारी होनी चाहिए.
३. मै चुप रहूँगा
एक साधू जी नाव में यात्रा कर रहे थे उसी नाव में बहुत सारे युवक भी यात्रा कर रहे थे. वे सब यात्रा का मजा ले रहे थे. मजा लेते-लेते साधुजी के भी मजे लेने लगे. वे साधुजी से कहने लगे- 'बाबाजी! आपको तो अच्छा बढ़िया खाने-पीने को मिलता होगा, आपके तो ठाठ होंगे'. साधुजी चुप थे . वे तंग करते-करते गली-गलोच पर आ गये. इतने में नाव डगमगाई और एक आकाशवाणी हुई की- 'बाबाजी, अगर आप चाहें तो हम नाव पलट दें. सब डूब जायेंगे, लेकिन आप बच जायेंगे ' बाबाजी के मन में बड़ी शान्ति थी . साधुता यही है की विपरीत स्थितियों के बीच में भी मेरी ममता , मेरी अपनी क्षमा न गडबडाए. उन्होंने कहा - 'इस तरह की आकाशवाणी करनेवाला देवता कैसे हो सकता है? अगर आप सचमुच पलटना चाहते है तो नाव मत पलटो , इन युवकों की बुद्धि पलट दो' ऐसा शांत भाव! ऐसा क्षमाभाव! अगर हमारे जीवन में आ जाये तो हम क्रोध को जीत सकते है. इससे हमारी भावनाएं निर्मल हो जाएगी और मन पवित्र हो जायेगा. इसी भावना के साथ की आज का दिन हमारे जीवन के शेष दिनों के लिए गति देने में सहायक बनेगा और हम अपने स्वाभाव को प्राप्त कर पाएंगे यही मंगल कामना.
मैत्री समूह निकुंज जैन को यह सारांश बनाने के लिए धन्यवाद प्रेषित करता है!
निकुज जी आपके द्वारा इतना विस्तृत वर्णन बताया हम उस पर अमल करने का प्रयास करेगे और जीवन मै परिवर्तन करेगे आपको मेरी और से कोटि कोटि धन्यवाद
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