बहुत समय पहले १८ वें तीर्थंकर अरहनाथजी भगवन के समय में श्रीधर्म नामके एक राजा उज्जैनी नगर में राज करते थे. श्रीधर्म के दरबार में बलि, नमुचि, बृहस्पति एवं प्रह्लाद नाम के चार मंत्री थे. वे चारों वैदिक विचारधारा में कट्टर मान्यता रखते थे और जैन मान्यताओं के घोर विरोधी थे.
एक दिन मुनिश्री अकम्पनाचार्य अपने ७०० शिष्यों के साथ उज्जैनी नगरी के बाहर पधारे. यह समाचार पता चलते ही उज्जैनी के नागरिक उत्साहपूर्वक मुनिसंघ के दर्शन के लिए आने लगे. यह देखकर रजा ने भी मुनिसंघ के दर्शन हेतु जाने का मन बनाया. मंत्रियों को यह देखकर बहुत इर्ष्या होने लगी और उन्होंने राजा से कहा की ये मुनि ढोंगी एवं मूर्ख हैं और राजा के नमन के योग्य नहीं हैं. लेकिन राजा श्रीधर्म एक अच्छे vyakti थे और उन्होंने मुनिसंघ के दर्शन के लिए जाने का निश्चय किया. सो मंत्रियों को भी अनिच्छा पूर्वक राजा के साथ जाना पड़ा.
मुनिश्री अकम्पनाचार्य अवधिज्ञान के धारक थे. उन्होंने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया की राज्य के मंत्री जैन धर्म के विरोधी हैं तथा संघ के लिए समस्या कड़ी कर सकते हैं. इसलिए उन्होंने अपने संघ से मौन व्रत धारण करने के लिए कहा. संयोग से एक मुनि श्रुतसागरजी उस समय आहार हेतु उज्जैनी गए हुए थे और आचार्यश्री के इस आदेश से अवगत नहीं थे.
जब राजा अपने मंत्रियों के साथ मुनिसंघ के दर्शनार्थ पहुचे और उन्होंने मुनियों को नमन किया, सभी मुनि अपने मौन व्रत के कारन शांत रहे और उन्होंने राजा से कुछ नहीं कहा. यह देखकर मंत्रियों ने राजा से कहा "देखिये ये मुनि कितने घमंडी हैं. ये तो आपसे कुछ बोल भी नहीं रहे हैं. हमें लगता है की ये सभी मूर्ख हैं और अपनी मूर्खता छुपाने के लिए कुछ बोल नहीं रहे हैं. राजा ने इसपर कुछ नहीं कहा और वहां से लौट कर आने लगे. वापिस आते हुए उन्हें मुनि श्रुतसागरजी आहार से लौटकर आते हुए दिखे. बलि नाम का मंत्री मुनिश्री को देखकर हंसने लगा और संस्कृत में एक श्लोक कहा जिसका अर्थ है - "देखो यह बैल जो की चरने के बाद हमारी ही तरफ चला आ रहा है." यह सुनकर मुनि श्रुतसागरजी ने एक और श्लोक श्लोक कहा जिसके शब्द तो मंत्री के श्लोक के जैसे ही थे परन्तु उसका अर्थ एकदम अलग था. यह सुनकर मंत्री को क्रोध आ गया और वह मुनिश्री से वाद विवाद करने लगा. श्रुतसागरजी बहुत ज्ञानी मुनि थे और उन्होंने वाद-विवाद में बलि को पराजित कर दिया. बलि अपने आप को राजा के सामने अपमानित हुआ महसूस करने लगा. उसने अन्य मंत्रियों के साथ मिलकर इसका बदला लेने की ठानी. उन्होंने निश्चय किया की वे सभी मुनियों को मार डालेंगे. यह सोचकर वे चरों रात में नगर के बाहर आये.
इस बीच श्रुतसागरजीने साड़ी घटना आचार्य को बताई. उन्होंने विचार करके कहा की इस कारन से सारे संघ पर समस्या आने वाली है. अतः उन्होंने श्रुतसागरजी से विवाद के स्थान पर जाकर रात भर ध्यान करने के लिए कहा. मुनिश्री ने यह आदेश स्वीकार किया और विवाद के स्थान पर जाकर आत्म ध्यान करने लगे.
जब चारों मंत्री मुनिसंघ से बदला लेने का विचार बनाकर जा रहे थे, उन्होंने ध्यान में बैठे मुनि को देखा और तुरंत ही पहचान गए. उन्होंने कहा की हमारे अपना का कारण यही मुनि है सो सारे संघ से बदला लेने की बजाय हम इसे ही मार डालते हैं. उन्होंने अपनी अपनी तलवार ध्यान में बैठे मुनिश्री को मारने के लिए उठाई. यह देखकर उज्जैनी नगरी के नगर देवता ने उन सभी मंत्रियों के वैसी ही मुद्रा में स्थिर कर दिया और मुनिश्री की प्राण रक्षा की.
अगली सुबह जब नगर के लोगों ने हाथ में तलवार लिए मुनियों को देखा तो वे सारी घटना समझ गए. यह सुनकर राजा दौड़कर मुनिश्री के पास आये और उनके चरण पकड़कर क्षमा मांगने लगे.
राजा ने कहा की मैं इन मंत्रियों को प्राण दंड दूंगा. इसे सुनकर क्षमा धरी मुनिश्री ने राजा से कहा की वह मंत्रियों को इतना कठिन दंड न दे. अतः राजा ने आदेश दिया की उन चरों मंत्रियों का मुंह कला करके सारे नगर में घुमाया जायेगा और उसके पश्चात् उन्हें सदा के लिए नगर से निष्काषित कर दिया जायेगा.
राजा के आदेश अनुसार उन मंत्रियों को दंड दिया गया और मंत्रियों को नगर से निष्काषित कर दिया गया.
चारों मंत्री कई मीलों का प्रवास कर उत्तर की और चले और राजा पद्म के नगर हस्तिनापुर पहुचे. उन्होंने राजा के दरबार में पहुच कर उसकी बहुत बड़ाई की और ब्राह्मण होने के नाते उसे बहुत सारा आशीष दिया. isse प्रसन्ना होकर राजा ने उन्हें अपना मंत्री बनने का आग्रह किया जिसके लिए वे चरों सहमत हो गए.
थोड़े दिनों में बलि को समझ आया की राजा के मन में कोई मुश्किल है जिसके कारण वह chintit rehte हैं. mauka देखकर एक दिन बलि ने राजा से उनकी chinta का कारण poochha. राजा ने bataya की उनके pita एक चक्रवर्ती थे और उनके राज्य में anek राजा उनके अधीन थे. परन्तु उन्होंने मोक्ष prapti हेतु जैन दीक्षा धारण कर li. कुछ समय बाद उनके bade भाई Vishnukumar ने भी जैन deeksha धारण कर li. इसका लाभ उठा कर पडोसी राज्य का राजा अब unka राज्य hadapna chahta है. यह सुनकर बलि ने कहा की वह aisa दुस्साहस करने wale राजा को उनके charno में la sakta है. राजा ने khush होकर कहा की yadi बलि ने aisa किया तो वह उसे एक वर देंगे.
बलि अन्य तीनो मंत्रियों के साथ मिलकर poadosi राज्य के राजा के पास गया और unse कहा की वे राजा पद्म के विरोधी हो गए हैं और हस्तिनापुर पर vijay पाने में उसकी सहायता कर सकते हैं. यह सुनकर उस राजा ने मंत्रियों से मैत्री कर ली. बलि ने कहा की उसे राजा से एकांत में कुछ avashyak charcha karni है जिसके लिए राजा तैयार हो गया. सभी के jaate ही बलि ने अपनी तलवार nikal कर राजा को bandi bana लिया और उसे pakad कर राजा पद्म के samne हस्तिनापुर le आया. राजा पद्म इतना प्रसन्न हुए की उन्होंने बलि को एक की जगह do वर देने का वचन दिया.
iske बाद बहुत समय व्यतीत हो गया और anek राज्यों से होते हुए अकम्पनाचार्य का संघ चातुर्मास के समय हस्तिनापुर नगरी पहुंचा. उन्हें देखते ही मंत्रियों ने पहचान लिया और बदला लेने की उनकी इच्छा फिर जाग गयी. बलि रजा पद्म के पास गया और उसने राजा से अपने दो वर देने को कहा. राजा ने कहा जो चाहो मांग लो.
बलि ने कहा - "पहला वर यह की मैं ७ दिनों के हस्तिनापुर का राजा बनना चाहता हूँ; और सर यह ७ दिनों के ये आप महल के भीतर ही रहें."
राजा ने ये दोनों वर बलि को प्रदान किये.
राजा बनते ही बलि ने आदेश दिया की मुनि संघ के चारों ओर ऊँची दीवार हादी कर एक वेदी बनायीं जाये ओर उसके भीतर एक नर मेध यज्ञ किया जाये. मुनियों ने अपने ऊपर होते इस उपसर्ग को देखते हुए ध्यान में बैठ गए. इसके बाद बलि ने उस वेदी के भीतर लकड़ियाँ और घी डालने का आदेश दिया. जो ब्राम्हण यज्ञ में शामिल होने आये थे उन्हें बलि ने बहुत सारा दान आदि देना शुरू किया. इसके बाद उस वेदी में अग्नि लगायी गयी. उस अग्नि के कारण शुरू हुयी गरम हवा और धुएँ के कारन सभी मुनि काले पद गए. राजा पद्म इस सब के विरोध में कुछ नहीं कर पा रहा था और अपने वचन के कारण विवश हो गया था. धीरे धीरे मुनियों की पीड़ा बढ़ने लगी और उन्हें सांस लेना भी उभर हो गया.
वहां से बहुत दूर मिथिला नगरी में एक आचार्य अपने क्षुल्लक शिष्य के साथ बैठे ध्यान कर रहे थे. आचार्य ने श्रवण नक्षत्र को कम्पित होता हुआ देखा और उनके मुख से एक लम्बी "हा..." की आवाज निकल गयी. वह सुनकर क्षुल्लक जी ने पूछा "क्या हुआ गुरुवर?" आचार्य महाराज ने अपने अवधि ज्ञान द्वारा देखकर बताया की हस्तिनापुर नगरी में मुनियों पर घोर उपसर्ग हो रहा है. यह सुनकर क्षुल्लक जी ने कहा की हमें इस विषय में कुछ करना चाहिए. गुरु ने उनसे कहा की आप विष्णुकुमार मुनि जो की धर्निझात्त पर्वत पर ध्यानस्थ हैं जाकर अपनी विक्रिया रिध्धि का प्रयोग कर मुनियों की रक्षा करने के लिए प्रेरित करें. विक्रिया रिध्धि के प्रयोग से उनी विष्णुकुमार अपने अरिर का आकार इच्छा अनुसार बदल सकते थे. परन्तु उन्हें स्वयं अपनी इस रिध्धि का ज्ञान नहीं था.
क्षुल्लक द्वारा उनियों पर हो रहे उपसर्ग के बारे में सुनकर विष्णुकुमार मुनि तुरंत अपने भाई राजा पद्म के पास गए और उन्हें इस विषय में कुछ न करने के लिए प्रताड़ित किया. इसके बाद उन्होंने विक्रिया रिध्धि का प्रयोग करके ५२ उंगुल ऊँचे बटुक bran का रूप धारण किया. वे बलि के दरबार में आये और उन्होंने बलि से अपने लिए दक्षिणा मांगी. बलि ने कहा "हे बटुक, तुम्हे जो चाहिए मांग लो."
बटुक ने बलि से वचन माँगा की मई भी मांगूंगा तुम्हे देना पड़ेगा. बलि ने यह वचन बटुक को दे दिया. फिर बटुक ने कहा की "मुझे यज्ञ करके लिए तीन पग भूमि चाहिए और ये तीन पग मैं अपने पैरों से गिनकर लूँगा." इसपर बलि हंसने लगा और कहा "हे ब्राम्हण मुझे तुम पर दया aati है, तुमने मांगी भी तो ऐसी छोटी वस्तु." बटुक ने कहा की तुम कुछ भी कहो पमुझे तो यही चाहिए. सो बलि ने हा "ठीक है, आगे बढ़ो और अपनी तीन पग भूमि ले लो."
इसके बाद बटुक का रूप धारण किये विष्णुकुमार ने विक्रिया रिध्धि से अपना कद इतना बड़ा कर लिया की पहला पग उन्होंने उमेरू पर्वत पर रखा और दूसरा पग मानुशोत्तर पर्वत पर. अब तीसरा पग रखने के लिए कोई भूमि नहीं बची थी. बटुक ने बलि से कहा "मुझे अपना तीसरा पग रखने के लिए स्थान दो, अन्यथा तुम नरक में स्थान पाओगे." बलि ने अपनी पीठ की ओर ईशा करके बटुक से अपना तीसरा पग रखने के लिए कहा. यह देखकर बाले आराध्य देव आये ओर बटुक के रूप में खड़े विष्णुकुमार से बलि को क्षमा करने की गुहार करने लगे. विष्णुकुमार ने बलि को क्षमा कर दिया ओर बलि ने भी ई गलती का प्रायश्चित्त करते हुए मुनि संघ पर हो रहे सभी उपसर्ग बंद कर दिए. उसने भी जैन धर्म का मार्ग अपनाने का निश्चय किया. विष्णुकुमार ने भी दिगंबर मुनि दीक्षा पुनः धारण की.
उपसर्ग टलने के बाद सभी मुनि महाराज आहार के लिए निकले .सब श्रावको ने तय किया था की जब तक उपसर्ग नही तलेंगा सभी उपवास करेंगे. मुनिमहाराज जी का ७०० घरों मैं आहार हुआ और जिन श्रावको के घर आहार नही हुआ उन्होंने उन श्रावको को बुलाये जिनके यहाँ आहार हुआ था.और रक्षासूत्र बांधकर धर्मं वात्सल्य प्रकट किया. सात रंगों का रक्षासूत्र आज भी प्रसिध्ध है.आज भी श्रावक सोंन बना कर पहेले उन्हें आहार करवाते है फिर आहार करते है. यह घटना 18th तीर्थंकर के समय से चली आ रही है.
अकम्पनाचारी महाराज उपसर्ग सेहन करते हुए साधना मैं लीन रहे इसलिए वह सुध्धोप्योग के प्रतीक हैं. विष्णुकुमार महाराज जी सुभोयोग के प्रतीक है जिन्होंने की अपनी श्रद्धोप्योग की दशा मैं स्थिर न रहकर के जो सिध्धोप्योग मैं स्थिर हैं उनके उपसर्ग को अपनी ताला. बाली इत्यादि मंत्री अशुभोयोग के प्रतीक है जिन्होंने मुनि महाराजी जी पे उपसर्ग किया.
इन्हें हम अपने भीतेर रोज अनुभव कर कर सकते है.और अगर हम इससे प्रतीकातमक ले लेवे तो चार कषाय ही चार मंत्री है जब यह कषाय प्रबल हो जाती है तो साधना मैं बाधा आ जाती है .
हमारी साधना मैं बाधा डालने वाले ये चार कषाये है अकम्पनाचारी तो हमरी आस्था के प्रतीक है जिनमें की भक्ति है विवेक है श्रद्दा है वात्सल्य है यह सारे सात गुण है जोकि ७०० मुनिमहाराज है
आस्था के साथ ही संघ बनता है और देखा जाये पद्मराए हमारा पुरुषार्थ है जब यह पुरुषार्थ कषाय के वशीभूत होकर के राज्य से निष्काषित कर दिया जाता है तब यह विपत्ति आती है.
हमारी पुरुषार्थहीनता विपत्ति मैं कारन बनती है अकेली कषाय नही है कषय हम पर तभी हावी होती है जब हमारी आत्मा सो जाती है हमारा आत्मा पुरुषार्थ धक् जाता है तब जाकर यह उपसर्ग आता है.
धर्मात्मा के प्रति वात्सल्य उत्पन्न होता है आत्मा जाग्रति होटी है तब जाकर उसर्ग टल जाता है अगर हम देखे देखा जाये तो यह भी पूरी घटना आध्यात्मिक है
इसको सलून पर्व भी कहते है की जब मुनि महाराज का उपसर्ग टला और श्रावको को आहार देने का अवसर मिला. यह सब इन सुंदर है सलून है की इससे सलून पर्व भी कहा जाने लगा. यह जैन दर्शन के अनुसार राखी मानाने का कारन है . हम मंदिर जाकर राखी बाँध लेते है की भगवन आप हमारी रक्षा करते रहना और हमारी रक्षा मैं निमित्त बनते रहना. और रक्षा किस्से करनी है - रागद्वेष से . और रख्सा कौन करेगा - वीतरागता. वीत रागता ही हमारे अन्दर के रागद्वेष से हमारी रक्षा करेगी.
वोह संयम की राखी है और संयम मेरी अक्ष करता रहे. इसलिए आज भी हम मुनि महाराज को राखी बंधते है और शास्त्रों मैं राखी रखते है ताकि संयम हमारी रक्षा कर सके जिनवानी हमारी रक्षा कर सके. रक्षासूत्र का सन्देश ही यही है की वीतरागता के द्वारा ही हम कषायो से अपनी रक्षा करती रहे.
पर्व तो हमारे जीवन को सन्देश देने आते है. जैसे गन्ने की दो गठानो के बीच रस वाला भाग होता है जिससे हम पोर कहते हैं ठीक ऐसे ही हमारे जीवन के रागद्वेष के बीच पर्व आते है. पर्व के मायने सिर्फ अच्छे पकवान खाना और अच्छे कपडे पेहेनना है. पर्व तो आनंद के लिए है लेकिन सिर्फ भौतिक सुख के लिए नही है आत्मा आनंद के लिए भी है.इसलिए पर्व के दिन कोई व्रत नियम लूं जिससे मुझे वास्तविक सुख मिल सके. अपने पर्व का दिन सार्थक बनाने के लिए रागद्वेष को जीतना चाहिए.
हमारी भारतीय संस्कृति मैं और भी काफी घटनाये है किस तरह बहिन ने आपनी रक्षा के लिए भाई को रक्षा सूत्र भेजा और भाई ने भी उस विश्वास की रक्षा की. वैसे कोई किसी की रक्षा नही करता. होती तो है सिर्फ विश्वास की रक्षा है. हम तो सिर्फ अपने भीतर के विश्वास की रक्षा करते है.
दो मित्र थे जो की अलग अलग रहकर शत्रु से उतने मैं एक मित्र को करह की बहुत जोर से आवाज़ सुने दी. हो सके तो मुझसे मिलो. कमांडर से जब उस दोस्त्त ने कहा की मुझे अपने दोस्त की करह सुने दी तो मैं क्या उससे मिलने जा सकता हूँ. कमांडर ने कहा की मुझे तो जाना है बिना आज्ञा लिए भी वह वहां पहुंचा और थोड़ी देर मैं अपने मित्र से मिलकर वापस पहुंचा. उसके कमांडर ने उससे पूछा की क्या हुआ तुम तो व्यर्थ मैं गए वोह तो मर ही गया हुआ दोस्त ने जवाब दिया लेकिन मैंने उसके विश्वास की रक्षा की उससे पता था की मैं नही बचूंगा यह तय है लेकिन मेरा दोस्त मुझसे मिलने आएगा उसके इस विश्वास की रक्षा की. लेकिन वोह आएगा यह सबसे बड़ा विश्वास है . हरिवंश राय बच्चन ने विश्वास पे लिखा है - रात की हर सांस करती है प्रतीक्षा द्वार कोई खटखटाएगा दिवस का मुझ पर नहीं कोई क़र्ज़ बाकि रह गया है जगत के प्रति भी नहीं कोई फ़र्ज़ बाकि रह गया है .जा चुके जाना जहाँ था आ चुके आना जिन्हें था इस उदासी के अँधेरे मैं बता मन कौन आकर मुस्कुराएगा रात की हर सांस करती है प्रतीक्षा द्वार कोई खटखटाएगा और मैं बलिहार उसपर जो न आया और आने का समय दिन भी जिसने न बताया और सारी जिंदगी भी गुजर गयी जो न आया किन्तु उठ पता नही विश्वास मनं से की वोह आये न
यह है विश्वास जो एक बार हमारे मनन मैं जागृत होता है तो जीव फिर संसार मैं ज्यादा नही भटक सकता यह विश्वास का दिन है वात्सल्य का पर्व माने तो है ही लेकिन हमारे भीतर की आस्था है जिसने हमे उपसर्ग से बचाया. हमारे देव्ह्सस्त्र के प्रति श्रध्धान है उससे बढ़ाते चले जाये हमारा विश्वास और अधिक होना चहिये हमारे सधर्मी के प्रति भी वात्सल्य होना चहिये आज के दौर मैं भाई बहिन के बीच भी वात्सल्य कम हो गया है की अगर कुछ शेष है तो वह विश्वास है . जहा अविश्वास और विश्वासघाट के बीच प्रबलता है वहां विश्वास की ज्योति आज भी जलती है.
बच्चो के भीतर अगर संस्कार हम डाले विश्वास के और संबंधों की प्रबलता के तो आज का दिन उस्सी विश्वास और संबंधों का दिन hai
देवों मैं सम्बन्ध बनाये नही जाते वोह सतह है. पशुओ मैं संबंधों की समझ नही है एक मात्र मनुष्य है जिसने सम्बन्ध बनाये है. एक बार किसी को माँ कहके देखिये और अपने भीतर आने वाले पवित्रता का एकसास करियेगा. भीतर बरसने वाली पवित्रता का महसूस करियेगा. किसको बेटी कहके देखिये और मन मैं प्रोटेक्ट करने वाली भावना का एहसास करियेगा. जबकि जन्मा नही दिया होगा. यह शब्द कितनी मनन मैं पवित्रता आती है. हमने कैसे इन संबंधों की पवित्रता को कायम किया होगा. आज हम सोचते है की बहिन स एमिलेंगे तो बद्गेत न गड़बड़ा जाये. पहले ऐसा नही होता था वहां तो सिर्फ एक अन्तरंग आत्मीयता है. भाई और बहिन के प्रति भी ऐसा ही भाव हो. सम्बन्ध हमारे द्वेष को घटने वाले और धर्मानुराग को बदने वाले है. जो भी हम अपने जीवन मैं करते है वोह सब हमारे जीवन मैं परंपरा से निर्वाण लका कारन बन ता है.
बिना किसी स्वार्थ के हम सम्बन्ध बनाये तो वह निर्वाण का कारन बन सकता है. जिनके प्रति हमारे मन मैं कलुषता है उससे हटाकर के अपने उस सधर्मी के वात्सल्य भाव को अपने जीवन मैं व्यक्त कर सकते है.हम भगवन के सामने मुनिजनो को सामने और माँ जिनवानी के सामने जीवन को संयमित बनाने की चाहे तो आज के दिन कोई सकलप भी ग्रहण कर सकते है और इसी के साथ श्रद्दा जीवन भर बनी रहे. अपने जीवन मैं संबंधो की पवित्रता बनाकर रह सके.